Impact of the Russo-Ukraine War

रूस-यूक्रेन युद्ध का असर

Impact of the Russo-Ukraine War

Impact of the Russo-Ukraine War

रूस-यूक्रेन युद्ध का अंत नहीं हो रहा है, हजारों की संख्या में दोनों तरफ के सैनिक मारे जा चुके हैं, नागरिक हताहत हुए हैं और अरबों रुपये की संपत्ति तबाह हो चुकी है। यूक्रेन के राष्ट्रपति की अपनी सनक है और रूस के राष्ट्रपति अपनी ही मर्जी के मालिक हैं। इन दोनों देशों के बीच कोई तीसरा है, जोकि मौके का फायदा उठा रहा है। वह तीसरा अमेरिका है। अमेरिका अपनी विदेश नीति में कभी बदलाव नहीं करेगा और दुनिया के देशों के बीच संघर्ष कराकर या फिर पहले से जारी संघर्ष में अपनी एंट्री करके और आग में और घी डालकर बाहर आ जाता है। रूस-यूक्रेन युद्ध में अमेरिका की भूमिका एक शांति कायम कराने वाले देश की नहीं रही है, अपितु रूस को धमकाने वाले देश की है। यूक्रेन के जरिए रूस को हताहत करने की मानसिकता वाले अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों ने इस युद्ध में केवल अपना फायदा देखा है और यूक्रेन के राष्ट्रपति की ऐसी भूमिका है, जोकि अपने ही देश का विरोधी बन गया, अमेरिका और पश्चिमी देशों की बातों में आकर। दरअसल, रूस-यूक्रेन युद्ध के साथ ही एक कूटनीतिक युद्ध रूस के खिलाफ अमेरिका और दूसरे देशों की ओर से लड़ा जा रहा है। अभी तक तटस्थ रहे भारत पर इसकी आंच दिखने लगी है। रूस को पैसे की जरूरत है और पश्चिमी देश पर उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगा चुके हैं। ऐसे में रूस अपने परंपरागत मित्र से कारोबार बढ़ाना चाहता है, उसे कच्चा ईंधन और गैस की सप्लाई देने को तैयार है, लेकिन अमेरिका, भारत को धमका रहा है। हालात वर्ष 1998 में भारत की ओर से परमाणु बम के परीक्षण के बाद लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों जैसे ही हैं।

वैश्विक महाशक्तियों के बीच अमेरिका या रूस में से किसी एक ध्रुव को चुनने का दबाव भी बढ़ता जा रहा है। ऐसे हालात में भारत की भी कूटनीति काफी मुश्किल परिस्थितियों से गुजर रही है। भारत ने जैसे ही रूस से रूबल में तेल खरीदने का ऐलान किया, वैसे ही अमेरिका ने चेतावनी जारी कर दी। भारत दौरे पर आए अमेरिका के उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने तो साफ शब्दों में कहा कि भारत को यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि अगर चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा का उल्लंघन करता है तो रूस उसके बचाव में आएगा। अमेरिका की यह आशंका कितनी सच होगी, यह तो वक्त बताएगा हालांकि इतना तय है कि जब भी पाकिस्तान के साथ भारत का संघर्ष हुआ, रूस हमेशा भारत की मदद को तैयार रहा है। वहीं चीन पर दबाव बनाकर एलएसी पर संघर्ष टलवाने में भी उसकी भूमिका रही है। इस बीच अमेरिका ने कभी किसी मसले पर भारत का साथ और समर्थन नहीं किया है। उसकी नीति पाकिस्तान को समर्थन कर रही है। मालूम हो, अमेरिका के वाणिज्य मंत्री जीना रायमुंडो ने भी कहा था कि यह काफी निराशाजनक होगा, अगर नई दिल्ली मॉस्को से रियायती दर पर तेल और गैस की डील करती है। इतना ही नहीं, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने खुद ही रूस-यूक्रेन युद्ध पर भारत के रुख को कुछ हद तक अस्थिर बताया था। भारत ने संयुक्त राष्ट्र में रूस के खिलाफ वोटिंग से हर बार वॉकआउट किया है। वहीं, सुरक्षा परिषद की बैठक में भारत दोनों देशों से तत्काल युद्ध को खत्म करने और बातचीत के जरिए विवादों को हल करने का आह्वान कर चुका है।

सवाल यह है, कि भारत अगर अमेरिका और पश्चिमी देशों की तर्ज पर रूस का विरोध करता और उस पर प्रतिबंध लगाता है तो क्या अमेरिका और पश्चिमी देश उससे खुश होंगे। यह बहुत बड़ी भूल होगी। अमेरिका और पश्चिमी देश कभी नहीं चाहते कि भारत आर्थिक रूप से समृद्ध हो, उनकी हमेशा से ऐसी नीति रही है, कि विकासशील देश वहीं का वहीं रहे और अगर वे आगे बढऩे की चेष्टा करें भी तो उन्हें रोक दिया जाए। हालांकि रूस ने हमेशा कारोबारी रिश्तों को भारत के साथ बढ़ाया है और सामरिक हथियारों को प्रदान करने में भी वह भारत का जांचा-परखा सहयोगी है। गौरतलब है कि रूस-यूक्रेन संकट पर भारत की स्थिति को समझाने के लिए दर्जनों अमेरिकी सांसदों, विश्लेषकों और प्रशासन के अधिकारियों से मुलाकातें हो रही हैं। हालांकि, अमेरिका का रुख आज भी वैसा ही है, जैसा 1998 के दशक में था। अमेरिका खुद को वैश्विक तनाव खत्म करवाने में मास्टर मानता है। उसका मानना है कि चीन की आक्रामकता के खिलाफ वही ऐसा देश है, जो भारत की सहायता कर सकता है। इसके बावजूद भारत के राजनयिक अमेरिकी अधिकारियों, सांसदों और विश्लेषकों के साथ बैठक कर भारत के नजरिये को समझाने की कोशिश कर रहे हैं। यह भी खूब है कि यूक्रेन समेत अमेरिका और पश्चिमी देशों की नजरों में रूस खटक रहा है, लेकिन रूस जैसी कड़वाहट ही भारत के प्रति भी है, क्योंकि भारत तटस्थ रहकर भी रूस के साथ खड़ा नजर आ रहा है।

भारत में इस समय पेट्रोल-डीजल के दाम आसमान छू रहे हैं। ऐसे में उसकी जरूरत सस्ता ईंधन है, अगर यह जरूरत रूस से पूरी हो रही है, तो भारत को इस संबंध में जरूर करार करना चाहिए। हालांकि अमेरिका इसमें रुकावट बन रहा है। यह समय भारतीय विदेश नीति और कूटनीति का परीक्षा काल है। भारत को अमेरिका की जरूरत भी है और रूस की भी। दोनों में किसी एक साथ वह नहीं चल सकता। अमेरिका की ऐसी आशंकाएं डराने वाली हैं कि चीन के साथ संघर्ष में रूस, भारत की मदद नहीं करेगा। वास्तव में भारत को ऐसी धमकियां का कड़ा जवाब देना चाहिए। भारत दुनिया की विकसित होती अर्थव्यवस्था है, वहीं सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, उसकी अपनी विदेश नीति है, और वह किसी देश के दबाव में आकर फैसले नहीं लेता है। संभव है, केंद्र सरकार इस मसले का भी समुचित हल निकालेगी।